कृषक पुत्र मैं भारत का
निज व्यथा आज मैं कहता हूँ
चोटिल अंतर्मन के घावों से
दर्द आज मैं कहता हूं।
अपनो के सपने सुनकर,
मैं अपने सपने गढ़ता हूँ।
आगे जाने की चाहत में,
मन को उत्तेजित करता हूँ।
कल में सोचे भावों में
आने वाले कल में मैं .....
ख्वाब सजाये रहता रहता हूँ।
मार प्रकृति की उम्मीदों पर
निर्दयता से जब पड़ती है
सारे ख्वाबो की रचना.....
क्षण में ही ओझिल हो जाती है।
टूटे सपनो के जख्मों को
अन्दर ही लेकर रह जाता हूँ
कृषक पुत्र में भारत का
सपनो में ही खो जाता हूँ।
मेरी अपनी मेहनत पर
फिर फिर पानी फिरता है
मेरे अपने बिखरे सपने
मिट्टी में ही मिल जाते है।
तब बदहाली के गीत हमारे,
जन जन तक जब जाते हैं,
शाशन सत्ता तब नींद छोड़ती
उन्नति के गीत सुनाती है।
हमदर्दी के मरहम लगते
भिन्न भिन्न गलियारों से,
झूठे वादे झूठे सपने
बढ़ चढ़ कर चलने लगते है।
निज स्वारथ के शातिर ये,
निज महिमा के गीत सुनाते है
मेरी बदहाली की गुण गाथा
ऊँचे स्वर में ये सब गाते हैं।
मैं कृषक पुत्र हूँ भारत का
सपनो की बलि चढ़ जाता हूँ
कल में देखी ख्वाबे मेरी
कल में ही मिल जाती हैं।
टूटे सपने टूटी ख्वाबे
अपने ही मन में रह जाती है
चला जहाँ से वही पहुँचता,
कृषक पुत्र मैं भारत का,
निज कथा आज मैं कहता हूँ
निज व्यथा आज मैं कहता हूँ।।
पी एन त्रिपाठी,,,,,
लेखक/कवि
बाँदा चित्रकूट
28/12/2020,
प्रताप नारायण त्रिपाठी
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